आदिकाल की परिस्थितियाँ

राजनीतिक दृष्टि से यह युग भारतीय इतिहास में पतन और विघटन का युग है । सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात देश में एकछत्र शासन का अभाव हो गया था। राष्ट्र छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया । राजसत्ता अस्थिर हो गई । इन राज्यों के शासक आपस में मिथ्या शान और अभिमान में पड़कर लड़ने लगे । लड़ाइयों का प्रमुख उद्देश्य जर, जोरु और जमीन के लिए शौर्य-प्रदर्शन ही होता था । यह साधारण सा नियम बन गया था -
जाकी बिटिया सुंदर देखी, ता ऊपर जाइ धरि तरवारी
कवि जगनिक ने निम्न पंक्तियों में क्षत्रिय के गुण गिना दिए -
बारह बरिस लौ कूकर जीवै, और तेरह लौ जियै सियार।
बरिस अठारह छत्री जीवै, आगे जीवन को धिक्कार ।।
तात्पर्य यह है कि किसी न किसी बहाने राजाओं की तलवार म्यान से बाहर रहती थी ।

दूसरी ओर आपस की फूट में फँसे हुए हिंदू राजाओ पर पश्चिम की ओर से मुसलमानों ने भी आक्रमण करने आरंभ कर दिए थे । इस प्रकार यह युग आंतरिक अशांति एवं बाह्य आक्रमण से त्रस्त युग था ।

धार्मिक दृष्टि से इस युग में बौद्ध धर्म का ह्तास होने लगा था, शंकाराचार्य और कुमारिल भट्ट जैसे विद्वानों ने उनकी कमर तोड़ दी थी । ब्राहम्ण धर्म फिर से पनपने लगा था ।

सामाजिक दृष्टि से इस युग में राजा का महत्व सर्वोपरि था । उसकी इच्छा पर सम्पूर्ण राज्य निर्भर था । साधारण जनता का कोई महत्व नहीं था । इस दृष्टि से इसे सामंतवादी युग कहा जा सकता है ।

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