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रीतिकालीन वीर काव्य के कवि और उनकी रचनाएँ

रीतिकाल में वीर काव्य धारा के दर्शन भी होते हैं । वीर रस की फुटकल रचनाएँ निरंतर रची जाती रही । जिनमें युद्धवीरता और दानवीरता दोनों की बड़ी अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा भरी रहती थी । भूषण इस काव्य-प्रवृत्ति के प्रमुख कवि हैं । भूषण का काव्य युग की प्ररेणा की उपज कहा जा सकता है । अपने युग के जिस आदर्श नायक शिवाजी का भूषण ने अपने काव्य में चित्रण किया है , वह उसकी अपनी मनोभावनाओं का साकार रूप है, किसी सामंत की प्रतिमूर्ति नहीं । भूषण ने शिवाजी और छत्रसाल को काव्य-नायक बनाकर उनके वीर कृत्यों का ओजस्वी भाषा में चित्रण किया है । भूषण के अतिरिक्त लाल, सूदन, पद्माकर, सेनापति, चंद्रशेखर, जोधराज, भान और सदानंद आदि कवियों ने भी वीर-काव्य की रचनाएँ की हैं ।  1. भूषण की मुख्य रचनाएँ हैं :- शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक, भूषण उल्लास, दूषण उल्लास, भूषण-हजारा । 2. सेनापति की वीर काव्य रचनाएँ :- गुरु शोभा, चाणक्य नीति का भावानुवाद 3. लाल : छत्रप्रकाश 4. सूदन : सुजानचरित 5. चंद्रशेखर : हम्मीरहठ

रीतिकालीन रीतिमुक्त भक्ति काव्य

पूर्वमध्य काल (भक्ति काल) में भक्ति की जो निर्गुण,सूफी,राम-काव्य और कृष्ण काव्य की धाराएँ प्रवाहित हुई थी । वे अविरल रूप से रीतिकाल में भी चलती रही । निर्गुण कवियों में यारी साहब (बाबरी संप्रदाय के प्रसिद्ध संत),दरिया साहब, जगजीवन दास, पलटू साहब, चरनदास, शिवनारायण दास और तुलसी साहब (हाथरस वाले) के नाम उल्लेखनीय हैं । सूफी या प्रेमाख्यान कवियों में कासिमशाह, नूरमुहम्मद तथा शेख निसार के नाम उल्लेखनीय हैं । बोधा और चतुर्भुजदास ने भी इस काव्य प्रवृत्ति की रचनाएँ इस काल में की हैं । राम काव्य परम्परा में गुरु गोविन्द सिंह ,जानकी रसिक शरण(अवध सागर), जनकराय, किशोरी शरण(20 राम काव्य), भगवंत राय खिची(रामायण), विश्वनाथ सिंह(6 राम काव्य) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । कृष्ण काव्य में भक्ति की पवित्र धारा पर श्रृंगार हावी हो गया । फलत: राधा-कृष्ण (हरि और राधिका) की आड़ में मानवी श्रृंगार का प्रचलन हो गया ।प्रबंधात्मक कृष्ण-भक्ति काव्य रचनाकारों में ब्रजवासीदास तथा मंचित कवि उल्लेखनीय हैं । मुक्तक कृष्ण-काव्य की बहुलता रही ,ऐसे रचनाकारों में  रूपरसिकदेव, नागरीदास,अलबेली, चाचा हितवृन्दावन दास आदि का नाम

रीतिकालीन रीतिमुक्त नीतिकाव्य

रीतिकाल में रीतिमुक्त नीति काव्य भी रचा जाता रहा । नीतिकाव्य इस युग की एक प्रमुख प्रवृत्ति रही । वृन्द,गिरधर कविराय, दीनदयाल गिरि, लाल और सूदन जैसे कवियों ने विपुल नीति साहित्य की रचना की । वृन्द ने सरल,सरस भाषा में कलापूर्ण सूक्तियाँ कही हैं । गिरधर कविराय ने व्यवहार और नीति से संबद्ध कुंडलियाँ लिखी । दीनदयाल गिरि ने स्वच्छ, सुव्यवस्थित और परिष्कृत भाषा में जो अन्योक्तियाँ कही,वे नीतिसाहित्य में मूर्धन्य स्थान रखती हैं । नीतिकाव्य के इन कवियों की रचनाएँ इस प्रकार हैं ::- 01. वृंद : 1.वृंद सतसई 2.भाव पंचाशिका 3.यमक सतसई 4.श्रृंगार शिक्षा 5.चोर पंचाशिका 6.पवन पचीसी 7.सत्यस्वरूप 8.भारतकथा 9.समेतशिखर 02. गिरधर कविराय : सांई (कुंडलियाँ) 03. लाल : 1.छत्र प्रकाश 2.विष्णु विलास  04. सूदन :1.सुजान चरित  05. दिनदयाल गिरि :   06. बैताल :  07. सम्मन :   दीनदयाल गिरि की अन्योक्तियों के कुछ उदाहरण : हे पांडे यह बात को,को समुझै या ठांव ।  इतै न कोऊ हैं सुधी, यह ग्वारन गांव ॥ यह ग्वारन को गांव, नांव नहिं सूधे बोले । बसै पसुन के संग अंग ऐंडे करि डौलले ॥ बरनै दीनदयाल छाछ भरि लीजै भांडे । कहा कहौ

रीतिमुक्त कवि और उनकी रचनाएँ

रीतिकाल में रीतिमुक्त या स्वछंद काव्य भी रचा जा रहा था । इस प्रकार का काव्य भाव-प्रधान था । इसमें शारीरिक वासना की गंध नहीं , वरन हृदय की अतृप्त पुकार है । राधा और कृष्ण की लीलाओं के गान के बहाने नहीं, बल्कि सीधे-सादे रूप में वैयक्तिक रूप की स्पष्ट अभिव्यक्ति है । भावात्मकता, वक्रता,लाक्षणिकता, भावों की वैयक्तिकता, मार्मिकता,स्वच्छंदता आदि इस वर्ग के कवियों की विशेषताएँ हैं । इस वर्ग के कवियों में घनानंद, आलम, बोधा और ठाकुर के नाम प्रमुख हैं । इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं :-  1. घनानंद : प्रमुख रचनाएँ : 1.सुजानसागर 2. विरहलीला 3.कोकसार 4. रसकेलिबल्ली 5. कृपाकांड ।  2. आलम : 1. आलम केलि, 2.सुदामा चरित 3.श्यामस्नेही 4.माधवानलकामकंदला । 3. बोधा : 1.विरहबारीश 2.इश्कनामा ।  4. ठाकुर : 1.ठाकुर ठसक । 

रीतिसिद्ध कवि

रीतिसिद्ध उन कवियों को कहा गया है, जिनका काव्य ,काव्य के शास्त्रीय ज्ञान से तो आबद्ध था, लेकिन वे लक्षणों के चक्कर में नहीं पड़े । लेकिन इन्हें काव्य-शास्त्र का पूरा ज्ञान था । इनके काव्य पर काव्यशास्त्रीय छाप स्पष्ट थी । रीतिसिद्ध कवियों में सर्वप्रथम जिस कवि का नाम लिया जाता है, वह है : बिहारी । बिहारी रीतिकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं । बिहारी की एक ही रचना मिलती है, जिसका नाम है "बिहारी सतसई" । सतसई का शाब्दिक अर्थ है : सात सौ (सप्तशती) । "बिहारी सतसई" में सात सौ दौहे होने के कारण इसका नाम सतसई रखा गया । डॉ. गणपति चंद्र गुप्त "बिहारी सतसई" लिखने का कारण कुछ यूं बताते हैं : कहते हैं कि जयपुर के महाराजा जयसिंह अपनी एक नवविवाहिता रानी के सौंदर्यपाश में इस प्रकार बंध गए थे कि वे रात-दिन महल में ही पड़े रहते थे । इससे उनका राज-काज चौपट होने लग गया । सभी राज्य-अधिकारी परेशान हो गए । सब चाहते थे कि राजा महल से निकल कर बाहर आए, किंतु किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह इसके लिए राजा से प्रार्थना कर सके । ऐसे ही समय में महाकवि घूमते हुए जयपुर पहुँचे । उन्होंने सारी