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छयावादी युग में हास्य व व्यंग्यात्मक काव्य का सृजन

छायावादी युग में हास्य व व्यंग्यात्मक काव्य रचनाओं का सृजन भी हुआ और इस विधा ने एक विशिष्ट रूप धारण किया। कुछ कवियों ने तो केवल हास्य-व्यंग्य की ही काव्य रचनाएं की जबकि अन्य कवियों ने प्रसंगवश या गद्य रचनाओं में इस प्रकार की व्यंग्यात्मक कविताएं रची। ' मनोरंजन ' पत्रिका के संपादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा का नाम ऐसी कविता रचने में सर्वप्रथम स्थान पर है। ' मतवाला ',' गोलमाल ',' भूत ',' मौजी ',' मनोरंजन ' आदि पत्रिकाओं में इनकी हास्यरस से भरपूर कविताएं प्रकाशित हुई।इनके काव्य संकलन ' चना चबेला ' में तत्कालीन समाज , राजनीति और साहित्य पर बहुत ही रोचक ढ़ग से हास्य के रंग बिखेरे हैं।इस काव्य संकलन में खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों की रचनाएं संकलित हैं।   हरिशंकर शर्मा के ' पिंजरा-पोल ' तथा ' चिड़िया घर ' संग्रहों में समाज और धर्म में व्याप्त पाखंड तथा भ्रष्टाचार  पर  कलात्मक ढ़ग से तीखे व्यंग्य किए हैं। यद्यपि उनके ये काव्य-संकलन बहुत बाद में आए। पांडेय बेचन शर्मा ' उग्र ' का इस तरह की काव्य रचनाओं में एक

राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविता के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं

छायावादी युग में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविता प्रमुख रूप से लिखी गई।इन कवियों के बारे में हम पिछली पोस्ट में चर्चा कर चुके हैं। आज इस पोस्ट में हम इन कवियों की काव्य कृतियों के संबंध में जानकारी दे रहे हैं:- माखन लाल चतुर्वेदी (1888-1970): काव्य रचनाएं: 1.हिमकिरीटिनी 2. हिमतरंगिणी 3.युगचरण 4.समर्पण 5.माता 6.वेणु लो गूंजे स्वर। बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'(1897-1960): काव्य रचनाएं: 1.कुंकुम 2. अपलक 3.रश्मि-रेखा 4.क्वासि 5. विस्मृता 6. उर्मिला 7.विनोबा-स्तवन 8. प्रेमार्पण । जगन्नाथ  प्रसाद 'मिलिंद'(1907-1986 ): काव्य रचनाएं : 1.जीवन-संगीत 2.नवयुवक का ज्ञान 3.बलिपथ के गीत 4. भूमि की अनुभूति 5. पंखुरियां। सुभद्राकुमारी कुमारी चौहान(1904- 1947 ): काव्य रचनाएं: 1. मुकुल 2.नक्षत्र 3.त्रिधारा । सोहन लाल द्विवेदी (1905-......... ) : काव्य रचनाएं: 1.भैरवी 2.पूजा-गीत 3.वासवदत्ता 4. कुणाल 5.युगारम्भ 6.वासंती 7. बांसुरी 8.मोदक 9. बालभारती।  रामधारी सिंह 'दिनकर' (1908-1974) : काव्य रचनाएं: 1.रेणुका 2. रसवंती 3. द्वंद्वगीत 4. हुंकार 5. धूपछांव 6.सामधेनी 7. बापू  8.कुरुक्षे

छायावादी युग में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविता का विकास

छायावादी युग(सन्1917 से 1936)एक ऐसा कालखंड है जिसमें कविता विविध विषयों के साथ अवतरित हुई।जिस प्रकार रीतिकाल में रीतिबद्ध शृंगार कविता के साथ-साथ वीर रस प्रधान काव्य-धारा का प्रवाह होता रहा,उसी प्रकार आधुनिक काल के इस चरण में राष्ट्रीय काव्यधारा छायावादी और वैयक्तिक कविता के समानांतर प्रवाहित रही। इसमें द्विवेदी युग के मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी   आदि कुछ कवि तो कार्यरत रहे ही अन्य अनेक सशक्त कवियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।इन कवियों में माखनलाल चतुर्वेदी,बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',जगन्नाथ प्रसाद 'मिलिन्द',सुभद्राकुमारी चौहान,सोहन लाल द्विवेदी,रामधारी सिंह 'दिनकर',उदयशंकर भट्ट,उपेन्द्रनाथ 'अश्क', आदि प्रमुख हैं। अन्य कवियों में गुरुभक्त सिंह 'भक्त',श्यामनारायण पांडेय,विद्यावती 'कोकिल',सुमित्राकुमारी सिन्हा,आरसी प्रसाद सिंह,गोपालशरण सिंह 'नेपाली',अनूप शर्मा,हरिकृष्ण प्रेमी,पद्मसिंह शर्मा 'कमलेश', बालकृष्ण राव, हंसकुमार तिवारी,रमानाथ अवस्थी आदि हैं।इन कवियों की रचनाओं में सांस्कृतिक चेतना का बहु

हालावादी कवि और उनकी रचनाएं

आज की पोस्ट में हम हालावादी कवियों की रचनाओं का परिचय दे रहे हैं। पिछली पोस्ट में हमने जाना कि हालावाद के प्रवर्तक कवि हरिवंश राय बच्चन जी है। अन्य हालावादी कवियों में भगवती चरण वर्मा,रामेश्वर शुक्ल अंचल और नरेंद्र शर्मा प्रभृति हैं। 1. हरिवंश राय बच्चन(1907-2003): काव्य रचनाएं:1.निशा निमंत्रण 2.एकांत-संगीत 3.आकुल-अंतर 4.दो चट्टाने 5.हलाहल 6.मधुबाला 7.मधुशाला 8.मधुकलश 9.मिलन-यामिनी 10.प्रणय-पत्रिका 11.आरती और अंगारे 12.धार के इधर-उधर 13.विकल विश्व 14.सतरंगिणी 15.बंगाल का अकाल 16.बुद्ध और नाचघर.17.कटती प्रतिमाओं की आवाज। 2.  भगवती चरण वर्मा(1903-1980 ): काव्य रचनाएं: 1. मधुवन 2. प्रेम-संगीत 3.मानव 4.त्रिपथगा 5. विस्मृति के फूल। 3. रामेश्वर शुक्ल अंचल(1915-1996): काव्य-रचनाएं:1.मधुकर 2.मधूलिका 3. अपराजिता 4.किरणबेला 5.लाल-चूनर 6. करील 7. वर्षान्त के बादल 8.इन आवाजों को ठहरा लो। 4. नरेंद्र शर्मा(1913-1989): काव्य रचनाएं: 1.प्रभातफेरी 2.प्रवासी के गीत 3.पलाश वन 4.मिट्टी और फूल 5.शूलफूल 6.कर्णफूल 7.कामिनी 8.हंसमाला 9.अग्निशस्य 10.रक्तचंदन 11.द्रोपदी 12.उत्तरजय। 

हालावाद

छायावादी काव्य का एक पक्ष स्वच्छंदतावाद प्रखर होकर व्यक्तिवादी-काव्य में विकसित हुआ। इस काव्य में समग्रत: एवं संपूर्णत: वैयक्तिक चेतनाओं को ही काव्यमय स्वरों और भाषा में संजोया-संवारा गया है।डॉ.नगेन्द्र ने छायावाद के बाद और प्रगतिवाद के पूर्व को 'वैयक्तिक कविता' कहा है। उनके अनुसार, "वैयक्तिक कविता छायावाद की अनुजा और प्रगतिवाद की अग्रजा है, जिसने प्रगतिवाद के लिए एक मार्ग प्रशस्त किया। यह वैयक्तिक कविता आदर्शवादी और भौतिकवादी,दक्षिण और वामपक्षीय विचारधाराओं के बीच का एक क्षेत्र है।"इसे 'वैयक्तिक कविता' या 'हालावाद' या 'नव्य-स्वछंदतावाद' या 'उन्मुक्त प्रेमकाव्य' या 'प्रेम व मस्ती के काव्य' आदि संज्ञाओं से अभिहित किया गया है। इस धारा के प्रमुख कवि हैं- हरिवंशराय बच्चन, भगवतीचरण वर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', नरेन्द्र शर्मा आदि। कुछ इतिहासकारों व आलोचकों ने व्यक्तिचेतना से विनिर्मित इस काव्यधारा को हालावाद का नाम इस कारण से दिया है, क्योंकि इसमें अपनी ही मस्ती,अल्हड़ता एवं अक्खड़ता है, इसलिए इस नाम को अनुपयुक्त नहीं कहा ज

रहस्यवाद की अवस्थाएं

रहस्य की खोज में साधक अनेक अवस्थाओं से गुजरता है।प्राचीन रहस्यवादियों की साधनागत विभिन्न स्थितियों और अवस्थाओं के समान आधुनिक रहस्यवाद में भी उन विभिन्न स्थितियों और अवस्थाओं के दर्शन होते हैं। अधिकांश विद्वद जनों ने रहस्यवाद की कम से कम तीन अवस्थाएं स्वीकार की हैं: जिज्ञासा,खोज और मिलन। जिज्ञासा में साधक के मन में अज्ञात सत्ता के प्रति आकर्षण व उत्कंठा का भाव जागृत होता है। यह स्थिति न्यूनाधिक समस्त छायावादी कवियों के काव्य में पाई जाती है। दूसरी स्थिति में अज्ञात के प्रति आकर्षण एवं उत्कंठा तीव्र होने लगती है। साधक की आत्मा उस अज्ञात रहस्यमयी सत्ता को पाने के लिए व्याकुल हो उठती है। खोज का परिणाम होता है-मिलन। इस स्थिति में साधक की आत्मा अपने साध्य के साथ एकाकारता का अनुभव कर समस्त सुख-दुखों एवं साधना-पथ में आने वाली तमाम कठिनाइयों से ऊपर उठ कर एक चरम आनंद की उदात्त अनुभूति में डूब जाती है।तब अपने-पराए, मैं और मेरा,वह और उसका,तू और तेरा आदि का भेद-भाव शेष नहीं रह जाता।तब एक ही आत्मा सबमें दीखने लगती है। यहां हम आधुनिक रहस्यवादी रचनाओं से कुछ उदाहरण उद्धृत कर रहे हैं। जिज्ञासा तत्

रहस्यवाद

द्विवेदी युग के अनंतर हिंदी कविता में एक ओर छायावाद का विकास हुआ वहीं दूसरी ओर रहस्यवाद और हालावाद का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुत: रहस्यवाद, बल्कि कहना चाहिए आधुनिक रहस्यवाद छायावादी काव्य-चेतना का ही विकास है। प्रकृति के माध्यम से मात्र सौंदर्य-बोध तक सीमित रहने वाली और साथ ही प्रकृति के माध्यम से प्रत्यक्ष जीवन का चित्रण करने वाली धारा छायावाद कहलाई; पर जहां प्रकृति के प्रति औत्सुक्य एवं रहस्यमयता का भाव भी जाग्रत हो गया वहां यह रहस्यवाद में परिवर्तित हो गई।जहां वैयक्तिकता का भाव प्रबल हो गया,वहां यह धारा हालावाद के रूप में सर्वथा अलग हो गई। छायावाद और रहस्यवाद का मुख्य अंतर यह है कि छायावाद में प्रकृति पर मानव जीवन का आरोप है और यह प्रकृति प्रेम तक ही सीमित रहता है,किंतु रहस्यवाद में प्रकृति के माध्यम से उस अज्ञात-अनंत शक्ति के साथ संबंध स्थापित करने का प्रयत्न होता है,जो सहज ही प्राप्य नहीं है। इस तथ्य को दूसरे शब्दों में य़ों भी कह सकते हैं कि "छायावाद में प्रकृति अथवा परमात्मा के प्रति कुतूहल रहता है, पर जब यह कुतूहल आसक्ति का रूप धारण कर लेता है,तब वहां से रहस्यवाद की सीमा

छायावाद की प्रवृत्तियां

छायावादी काव्य का विश्लेषण करने पर हम उसमें निम्नांकित प्रवृत्तियां पाते हैं :- 1. वैयक्तिकता : छायावादी काव्य में वैयक्तिकता का प्राधान्य है। कविता वैयक्तिक चिंतन और अनुभूति की परिधि में सीमित होने के कारण अंतर्मुखी हो गई, कवि के अहम् भाव में निबद्ध हो गई। कवियों ने काव्य में अपने सुख-दु:ख,उतार-चढ़ाव,आशा-निराशा की अभिव्यक्ति खुल कर की। उसने समग्र वस्तुजगत को अपनी भावनाओं में रंग कर देखा। जयशंकर प्रसाद का'आंसू' तथा सुमित्रा नंदन पंत के 'उच्छवास' और 'आंसू' व्यक्तिवादी अभिव्यक्ति के सुंदर निदर्शन हैं। इसके व्यक्तिवाद के स्व में सर्व सन्निहित है।डॉ. शिवदान सिंह चौहान इस संबंध में अत्यंत मार्मिक शब्दों में लिखते हैं -''कवि का मैं प्रत्येक प्रबुद्ध भारतवासी का मैं था,इस कारण कवि ने विषयगत दृष्टि से अपनी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए जो लाक्षणिक भाषा और अप्रस्तुत रचना शैली अपनाई,उसके संकेत और प्रतीक हर व्यक्ति के लिए सहज प्रेषणीय बन सके।''छायावादी कवियों की भावनाएं यदि उनके विशिष्ट वैयक्तिक दु:खों के रोने-धोने तक ही सीमित रहती,उ

छायावादी युग के कवि और उनकी रचनाएं

छायावाद के प्रमुख कवि हैं- सर्वश्री जयशंकर प्रसाद,सुमित्रानंदन पंत,सूर्यकांत त्रिपाठी'निराला' तथा महादेवी वर्मा। अन्य कवियों में डॉ.रामकुमार वर्मा, हरिकृष्ण'प्रेमी', जानकी वल्लभ शास्त्री, भगवतीचरण वर्मा,      उदयशंकर भट्ट,नरेन्द्र शर्मा,रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के नाम उल्लेखनीय हैं। इनकी रचनाएं निम्नानुसार हैं :- 1. जय शंकर प्रसाद (1889-1936 ई.) के काव्य संग्रह : 1.चित्राधार(ब्रज भाषा में रचित कविताएं); 2.कानन-कुसुम; 3. महाराणा का महत्त्व; 4.करुणालय; 5.झरना ;6.आंसू; 7.लहर; 8.कामायनी। 2. सुमित्रानंदन पंत (1900-1977ई.) के काव्य संग्रह : 1.वीणा; 2.ग्रन्थि;3.पल्लव; 4.गुंजन ;5. युगान्त ;6. युगवाणी; 7.ग्राम्या;8.स्वर्ण-किरण; 9. स्वर्ण-धूलि;10. युगान्तर; 11.उत्तरा ;12. रजत-शिखर; 13.शिल्पी; 14.प्रतिमा; 15.सौवर्ण; 16.वाणी ;17.चिदंबर; 18.रश्मिबंध; 19.कला और बूढ़ा चांद; 20.अभिषेकित; 21.हरीश सुरी सुनहरी टेर; 22. लोकायतन; 23.किरण वीणा । 3. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'(1898-1961ई.)के काव्य-संग्रह : 1.अनामिका ;2. परिमल; 3.गीतिका ;4.तुलसीदास; 5. आराधना;6.कुकुर

छायावाद क्या है?

द्विवेदी युग के पश्चात हिंदी साहित्य में जो कविता-धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। छायावाद की कालावधि सन् 1917 से 1936 तक मानी गई है। वस्तुत: इस कालावधि में छायावाद इतनी प्रमुख प्रवृत्ति रही है कि सभी कवि इससे प्रभावित हुए और इसके नाम पर ही इस युग को छायावादी युग कहा जाने लगा। छायावाद क्या है? छायावाद के स्वरूप को समझने के लिए उस पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है,जिसने उसे जन्म दिया। साहित्य के क्षेत्र में प्राय: एक नियम देखा जाता है कि पूर्ववर्ती युग के अभावों को दूर करने के लिए परवर्ती युग का जन्म होता है। छायावाद के मूल में भी यही नियम काम कर रहा है। इससे पूर्व द्विवेदी युग में हिंदी कविता कोरी उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की चर्चा व्यापक रूप से की जाती थी और कुछ आख्यानों का वर्णन किया जाता था। उपदेशात्मकता और नैतिकता की प्रधानता के कारण कविता में नीरसता आ गई। कवि का हृदय उस निरसता से ऊब गया और कविता में सरसता लाने के लिए वह छटपटा उठा। इसके लिए उसने प्रकृति को माध्यम बनाया। प्रकृति के माध्यम से जब मानव-भावनाओं का चित्रण होने लगा,तभी छायावा

द्विवेदी युग की प्रवृत्तियाँ

पिछली पोस्ट में हमने द्विवेदी युग की प्रस्तावना को जाना। इस पोस्ट में हम द्विवेदी युग की प्रवृत्तियों पर चर्चा करेंगे:- 1. राष्ट्रीय-भावना या राष्ट्र-प्रेम - इस समय भारत की राजनीति में एक महान परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयत्न तेज और बलवान हो गए। भारतेंदु युग में जागृत राष्ट्रीय चेतना क्रियात्मक रूप धारण करने लगी। उसका व्यापक प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा और कवि समाज राष्ट्र-प्रेम का वैतालिक बनकर राष्ट्र-प्रेम के गीत गाने लगा। जय जय प्यारा भारत देश     ... श्रीधर पाठक  संदेश नहीं मैं यहां स्वर्ग लाया इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया ...  मैथिलीशरण गुप्त लोक-प्रचलित पौराणिक आख्यानों,इतिहास वृत्तों और देश की राजनीतिक घटनाओं में इन्होंने अपने काव्य की विषय वस्तु को सजाया।इन आख्यानों,वृत्तों और घटनाओं के चयन में उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति,देशानुराग और सत्ता के प्रति विद्रोह का स्वर मुखर है। 2.   रुढ़ि-विद्रोह - पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव एवं जन जागृति के कारण इस काल के कवि में बौद्धिक जागरण हुआ और वह सास्कृतिक भावनाओं के मूल सिद्धांतों को प्रकाशित क

द्विवेदी युग के कवि और उनकी रचनाएँ

आधुनिक कविता के दूसरे पड़ाव (सन् 1903 से 1916)  को द्विवेदी-युग के नाम से जाना जाता है। यह आधुनिक कविता के उत्थान व विकास का काल है।सन् 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक बने।द्विवेदी जी से पूर्व कविता की भाषा ब्रज बनी हुई थी।लेकिन उन्होंने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से नवीनता से प्राचीनता का आवरण हटा दिया।जाति-हित की अपेक्षा देशहित को महत्त्व दिया।हिंदू होते हुए भी भारतीय कहलाने की गौरवमयी भावना  को जागृत किया।अतीत के गौरव को ध्यान में रखते हुए भी वर्तमान को न भूलने की प्रेरणा दी।खड़ीबोली को शुद्ध व्याकरण-सम्मत और व्यवस्थित बना कर साहित्य के सिंहासन पर बैठने योग्य बनाया।अब वह ब्रजभाषा रानी की युवराज्ञी न रहकर स्वयं साहित्यिक जगत की साम्राज्ञी बन गई।यह कार्य द्विवेदी जी के महान व्यक्तित्व से ही सम्पन्न हुआ और इस काल का कवि-मंडल उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके बताए मार्ग पर चला।इसलिए इस युग को द्विवेदी-युग का नाम दिया गया। इस काल के प्रमुख कवि हैं - सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔद्य', श्रीधर पाठक, गया प्रसाद श

ब्लॉग से पोस्टों की चोरी

आजकल लोग ब्लॉग से पोस्टों की चोरी कर,उसे अपने ब्लॉग और साइट पर अपने नाम से प्रकाशित कर सस्ती लोकप्रियता पाना चाहते हैं। कुछ ऐसा ही काम किया है,एक सम्मानित संस्था 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' के नाम से स्थापित साइट/ब्लॉग ने, जिसमें किसी  Author: chandansenji ने 'बूंद-बूंद इतिहास'से तीन पूरी पोस्टें लेकर प्रकाशित की हैं, बिना किसी संदर्भ, लिंक या ब्लॉग का उल्लेख किए।  हम ऐसे सभी ब्लॉग/साइट्स का पुरजोर विरोध दर्ज करते हैं, जो किसी भी ब्लॉग से,किसी रचना को चोरी करकेअपने ब्लॉग/साइट पर किसी अन्य नाम से प्रकाशित करते हैं।  उक्त चंदनसेनजी ने तो राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,वर्धा जैसी प्रतिष्ठित संस्था का नाम बदनाम किया है। जो मेरी निम्न तीन पोस्टों को हुबहु अपने नाम से प्रकाशित किया है। 01. हिंदी साहित्य का स्वर्णिम युग ( 14 जुलाई 2010 को 'बूंद-बूंद इतिहास' पर प्रकाशित) 02. रीतिकाल की प्रवृतियाँ या विशेषताएँ ( 08 जनवरी 2011 को 'बूंद-बूंद इतिहास' पर प्रकाशित) 03. रीतिकाल की परिस्थितियाँ ( 12 जनवरी 2011 को 'बूंद-बूंद इतिहास' पर प्रकाशित) उक्त वेबसाइट का

भारतेंदु युग के काव्य की प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ)

भारतेंदु युग ने हिंदी कविता को रीतिकाल के शृंगारपूर्ण और राज-आश्रय के वातावरण से निकाल कर राष्ट्रप्रेम, समाज-सुधार आदि की स्वस्थ भावनाओं से ओत-प्रेत कर उसे सामान्य जन से जोड़ दिया।इस युग की काव्य प्रवृत्तियाँ निम्नानुसार हैं:- 1. देशप्रेम की व्यंजना : अंग्रेजों के दमन चक्र के आतंक में इस युग के कवि पहले तो विदेशी शासन का गुणगान करते नजर आते हैं- परम दुखमय तिमिर जबै भारत में छायो,  तबहिं कृपा करि ईश ब्रिटिश सूरज प्रकटायो॥ किंतु शीघ्र ही यह प्रवृत्ति जाती रही।मननशील कवि समाज राष्ट्र की वास्तविक पुकार को शीघ्र ही समझ गया और उसने स्वदेश प्रेम के गीत गाने प्रारम्भ कर दिए- बहुत दिन बीते राम, प्रभु खोयो अपनो देस। खोवत है अब बैठ के, भाषा भोजन भेष ॥   (बालमुकुन्द गुप्त) विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार,ईश्वर से स्वतंत्रता की प्रार्थना आदि रूपों में भी यह भावना व्यक्त हुई।इस युग की राष्ट्रीयता सांस्कृतिक राष्ट्रीयता है, जिसमें हिंदू राष्ट्रीयता का स्वर प्रधान है। देश-प्रेम की भावना के कारण इन कवियों ने एक ओर तो अपने देश की अवनति का वर्णन करके आंसू बहाए तो दूसरी ओर अंग्रेज सरकार की आलोचना करके देशव

भारतेंदु युग के कवि और उनकी रचनाएँ

भारतेंदु युग (सन् 1868 से 1902) आधुनिक कविता का प्रवेश द्वार है।भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविता को रीतिकालीन दरबारी तथा शृंगार-प्रधान वातावरण से निकाल कर उसका जनता से नाता जोड़ा।इस युग के कविमंडल पर भारतेंदु जी के महान् व्यक्तित्व की गहरी एवं स्पष्ट छाप है।इस समय का काव्य चक्र भारतेंदु के व्यक्तित्व रूपी धुरी पर ही घुम रहा है।उन्होंने कवियों को दान व मान,दोनों से प्रोत्साहन दिया।उन्होंने बहुत से कवि-समाज स्थापित किए,जिनमें उपस्थित की हुई समस्याओं की पूर्ति में बड़ी उत्कृष्ट कविता की सृष्टि हुई।भारतेंदु युग की कविता में प्राचीन और आधुनिक काव्य-प्रवृत्तियों का समन्वय मिलता है।उसमें भक्ति-कालीन भक्ति भावना और रीतिकालीन शृंगार-भावना के साथ-साथ राजनीतिक चेतना,सामाजिक व्यवस्था,धार्मिक एवं आर्थिक शक्तियाँ,काव्य की विषय सामग्री को प्रभावित करने लगी।राजभक्ति,देश-प्रेम,सामाजिक व्यवस्था के प्रति दुख प्रकाश,सामाजिक कुरीतियों का खंडन,आर्थिक अवनति के प्रति क्षोभ,धन का विदेश की ओर प्रवाह,विधवा विवाह, विधवा-अवनति, बालविवाह,रुढ़ियों का खंडन एवं सामाजिक आन्दोलनों एवं स्त्री-स्वातंत्र्य की हिमायत आदि  आधुनि

आधुनिक काल का काल विभाजन

इस ब्लॉग में अब तक आप हिंदी साहित्य के आदिकाल, मध्यकाल (भक्तिकाल) और उत्तर-मध्यकाल(रीतिकाल) के इतिहास को जान चुके हैं । हिंदी साहित्य का आधुनिक काल अपने पिछले तीनों कालों से सर्वथा भिन्न है । आदिकाल में डिंगल, भक्तिकाल में अवधी और रीतिकाल में ब्रज भाषा का बोल-बाला रहा, वहीं इस काल में आकर खड़ी बोली का वर्चस्व स्थापित हो गया । अब तक के तीनों कालों में जहां पद्य का ही विकास हुआ था,वहीं इस युग में आकर गद्य और पद्य समान रूप से व्यवहृत होने लगे । प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से भी इस युग में नवीनता का समावेश हुआ । जहां पुराने काल के कवियों का दृष्टिकोण एक सीमित क्षेत्र में बँधा हुआ रहता था, वहाँ आधुनिक युग के कवियों ने समाज के व्यवहारिक जीवन का व्यापक चित्रण करना शुरु किया । इसलिए इस युग की कविता का फलक काफी विस्तृत हो गया । राजनीतिक चेतना,समाज सुधार की भावना,अध्यात्मवाद का संदेश आदि विविध विषय इस काल की कविता के आधार बनते गए हैं ।  आधुनिक युग की विस्तृत कविता-धारा की रूप रेखा जानने के लिए उसे प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर छ: प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है :-  1. भारतेन्दु युग ( सन