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अप्रैल, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

द्विवेदी युग के कवि और उनकी रचनाएँ

आधुनिक कविता के दूसरे पड़ाव (सन् 1903 से 1916)  को द्विवेदी-युग के नाम से जाना जाता है। यह आधुनिक कविता के उत्थान व विकास का काल है।सन् 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक बने।द्विवेदी जी से पूर्व कविता की भाषा ब्रज बनी हुई थी।लेकिन उन्होंने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से नवीनता से प्राचीनता का आवरण हटा दिया।जाति-हित की अपेक्षा देशहित को महत्त्व दिया।हिंदू होते हुए भी भारतीय कहलाने की गौरवमयी भावना  को जागृत किया।अतीत के गौरव को ध्यान में रखते हुए भी वर्तमान को न भूलने की प्रेरणा दी।खड़ीबोली को शुद्ध व्याकरण-सम्मत और व्यवस्थित बना कर साहित्य के सिंहासन पर बैठने योग्य बनाया।अब वह ब्रजभाषा रानी की युवराज्ञी न रहकर स्वयं साहित्यिक जगत की साम्राज्ञी बन गई।यह कार्य द्विवेदी जी के महान व्यक्तित्व से ही सम्पन्न हुआ और इस काल का कवि-मंडल उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके बताए मार्ग पर चला।इसलिए इस युग को द्विवेदी-युग का नाम दिया गया। इस काल के प्रमुख कवि हैं - सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔद्य', श्रीधर पाठक, गया प्रसाद श

ब्लॉग से पोस्टों की चोरी

आजकल लोग ब्लॉग से पोस्टों की चोरी कर,उसे अपने ब्लॉग और साइट पर अपने नाम से प्रकाशित कर सस्ती लोकप्रियता पाना चाहते हैं। कुछ ऐसा ही काम किया है,एक सम्मानित संस्था 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' के नाम से स्थापित साइट/ब्लॉग ने, जिसमें किसी  Author: chandansenji ने 'बूंद-बूंद इतिहास'से तीन पूरी पोस्टें लेकर प्रकाशित की हैं, बिना किसी संदर्भ, लिंक या ब्लॉग का उल्लेख किए।  हम ऐसे सभी ब्लॉग/साइट्स का पुरजोर विरोध दर्ज करते हैं, जो किसी भी ब्लॉग से,किसी रचना को चोरी करकेअपने ब्लॉग/साइट पर किसी अन्य नाम से प्रकाशित करते हैं।  उक्त चंदनसेनजी ने तो राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,वर्धा जैसी प्रतिष्ठित संस्था का नाम बदनाम किया है। जो मेरी निम्न तीन पोस्टों को हुबहु अपने नाम से प्रकाशित किया है। 01. हिंदी साहित्य का स्वर्णिम युग ( 14 जुलाई 2010 को 'बूंद-बूंद इतिहास' पर प्रकाशित) 02. रीतिकाल की प्रवृतियाँ या विशेषताएँ ( 08 जनवरी 2011 को 'बूंद-बूंद इतिहास' पर प्रकाशित) 03. रीतिकाल की परिस्थितियाँ ( 12 जनवरी 2011 को 'बूंद-बूंद इतिहास' पर प्रकाशित) उक्त वेबसाइट का

भारतेंदु युग के काव्य की प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ)

भारतेंदु युग ने हिंदी कविता को रीतिकाल के शृंगारपूर्ण और राज-आश्रय के वातावरण से निकाल कर राष्ट्रप्रेम, समाज-सुधार आदि की स्वस्थ भावनाओं से ओत-प्रेत कर उसे सामान्य जन से जोड़ दिया।इस युग की काव्य प्रवृत्तियाँ निम्नानुसार हैं:- 1. देशप्रेम की व्यंजना : अंग्रेजों के दमन चक्र के आतंक में इस युग के कवि पहले तो विदेशी शासन का गुणगान करते नजर आते हैं- परम दुखमय तिमिर जबै भारत में छायो,  तबहिं कृपा करि ईश ब्रिटिश सूरज प्रकटायो॥ किंतु शीघ्र ही यह प्रवृत्ति जाती रही।मननशील कवि समाज राष्ट्र की वास्तविक पुकार को शीघ्र ही समझ गया और उसने स्वदेश प्रेम के गीत गाने प्रारम्भ कर दिए- बहुत दिन बीते राम, प्रभु खोयो अपनो देस। खोवत है अब बैठ के, भाषा भोजन भेष ॥   (बालमुकुन्द गुप्त) विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार,ईश्वर से स्वतंत्रता की प्रार्थना आदि रूपों में भी यह भावना व्यक्त हुई।इस युग की राष्ट्रीयता सांस्कृतिक राष्ट्रीयता है, जिसमें हिंदू राष्ट्रीयता का स्वर प्रधान है। देश-प्रेम की भावना के कारण इन कवियों ने एक ओर तो अपने देश की अवनति का वर्णन करके आंसू बहाए तो दूसरी ओर अंग्रेज सरकार की आलोचना करके देशव