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जनवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रयोगवाद

प्रयोग शब्द का सामान्य अर्थ है, 'नई दिशा में अन्वेषण का प्रयास'। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रयोग निरंतर चलते रहते हैं। काव्य के क्षेत्र में भी पूर्ववर्ती युग की प्रतिक्रिया स्वरूप या नवीन युग-सापेक्ष चेतना की अभिव्यक्ति हेतु प्रयोग होते रहे हैं। सभी जागरूक कवियों में रूढ़ियों को तोड़कर या सृजित पथ को छोड़ कर नवीन पगडंडियों पर चलने की प्रवृत्ति न्यूनाधिक मात्रा में दिखाई पड़ती है। चाहे यह पगडंडी राजपथ का रूप ग्रहण न कर सके। सन् 1943 या इससे भी पांच-छ: वर्ष पूर्व हिंदी कविता में प्रयोगवादी कही जाने वाली कविता की पग-ध्वनि सुनाई देने लगी थी। कुछ लोगों का मानना है कि 1939 में नरोत्तम नागर के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका 'उच्छृंखल' में इस प्रकार की कविताएं छपने लगी थी जिसमें 'अस्वीकार','आत्यंतिक विच्छेद' और व्यापक 'मूर्ति-भंजन' का स्वर मुखर था तो कुछ लोग निराला की 'नये पत्ते', 'बेला'  और 'कुकुरमुत्ता' में इस नवीन काव्य-धारा के लक्षण देखते हैं। लेकिन 1943 में अज्ञेय के संपादन में 'तार-सप्तक' के प्रकाशन से प्रयो

प्रगतिवादी कवि और उनकी रचनाएं

प्रगतिवादी कवियों को हम तीन श्रेणियों में रख सकते हैं: एक,वे कवि जो मूल रूप से पूर्ववर्ती काव्यधारा छायावाद से संबद्ध हैं, दूसरे वे जो मूल रूप से प्रगतिवादी कवि हैं और तीसरे वे जिन्होंने प्रगतिवादी कविता से अपनी काव्य-यात्रा शुरु की लेकिन बाद में प्रयोगवादी या नई कविता करने लगे। पहले वर्ग के कवियों में सुमित्रानंदन पंत,सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'(विशुद्ध छायावादी),नरेन्द्र शर्मा,भगवती चरण वर्मा,रामेश्वर शुक्ल 'अंचल',बच्चन की कुछ कविताएं(हालावादी कवि),बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',माखन लाल चतुर्वेदी,रामधारी सिंह 'दिनकर',उदयशंकर भट्ट,उपेन्द्रनाथ 'अश्क',जगन्नाथ प्रसाद 'मिलिंद'(राष्ट्रीय काव्य धारा) आदि हैं। जिन्होंने प्रगतिवादी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान दिया। मूल रूप से प्रगतिवादी कवियों में केदारनाथ अग्रवाल,रामविलास शर्मा,नागार्जुन,रांगेय राघव,शिवमंगल सिंह 'सुमन',त्रिलोचन का नाम उल्लेखनीय है। गजानन माधव मुक्तिबोध,अज्ञेय,भारत भूषण अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र,नरेश मेहता, शमशेर बहादुर सिंह,धर्मवीर भारती में भी प्रगतिवाद किसी न किसी रूप मे

प्रगतिवादी कविता की प्रवृत्तियां

समाज और समाज से जुड़ी समस्याओं यथा गरीबी , अकाल , स्वाधीनता , किसान-मजदूर , शोषक-शोषित संबंध और इनसे उत्पन्न विसंगतियों पर जितनी व्यापक संवेदनशीलता इस धारा की कविता में है , वह अन्यत्र नहीं मिलती। यह काव्यधारा अपना संबंध एक ओर जहां भारतीय परंपरा से जोड़ती है वहीं दूसरी ओर भावी समाज से भी। वर्तमान के प्रति वह आलोचनात्मक यथार्थवादी दृष्टि अपनाती है। प्रगतिवादी काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियां इस प्रकार हैं:-   1.   सामाजिक यथार्थवाद   : इस काव्यधारा के कवियों ने समाज और उसकी समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया है। समाज में व्याप्त सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक,राजनीतिक विषमता के कारण दीन-दरिद्र वर्ग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि के प्रसारण को इस काव्यधारा के कवियों ने प्रमुख स्थान दिया और मजदूर , कच्चे घर , मटमैले बच्चों को अपने काव्य का विषय चुना।   सड़े घूर की गोबर की बदबू से दबकर महक जिंदगी के गुलाब की मर जाती है                  ...केदारनाथ अग्रवाल  ***** ओ मजदूर! ओ मजदूर!! तू सब चीजों का कर्त्ता , तू हीं सब चीजों से दूर ओ मजदूर! ओ मजदूर!!  ***** श्वानों को

प्रगतिवाद

जिस प्रकार द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता,उपदेशात्मकता और स्थूलता के प्रति विद्रोह में छायावाद का जन्म हुआ,उसी प्रकार छायावाद की सूक्ष्मता,कल्पनात्मकता, व्यक्तिवादिता और समाज-विमुखता की प्रतिक्रिया में एक नई साहित्यिक काव्य धारा का जन्म हुआ। इस धारा ने कविता को कल्पना-लोक से निकाल कर जीवन के वास्तविक धरातल पर खड़ा करने का प्रयत्न किया। जीवन का यथार्थ और वस्तुवादी दृष्टिकोण इस कविता का आधार बना। मनुष्य की वास्तविक समस्याओं का चित्रण इस काव्य-धारा का विषय बना। यह धारा साहित्य में 'प्रगतिवाद' के नाम से प्रतिष्ठित हुई।  'प्रगति' का सामान्य अर्थ है- 'आगे बढ़ना' और 'वाद' का अर्थ है-'सिद्धांत'। इस प्रकार प्रगतिवाद का सामान्य अर्थ है 'आगे बढ़ने का सिद्धांत'। लेकिन प्रगतिवाद में इस आगे बढ़ने का एक विशेष ढंग है,विशेष दिशा है जो उसे विशिष्ट परिभाषा देता है। इस अर्थ में 'प्राचीन से नवीन की ओर', 'आदर्श से यथार्थ की ओर','पूंजीवाद से समाजवाद' की ओर,'रूढ़ियों से स्वच्छंद जीवन की ओर','उच्चवर्ग से निम्नवर्ग की ओर&

छायावादी युग में ब्रज भाषा का काव्य

छायावादी युग में कवियों का एक वर्ग ऐसा भी था जो सूर,तुलसी,सेनापति,बिहारी और घनानंद जैसी समर्थ प्रतिभा संपन्न काव्य-धारा को जीवित रखने के लिए ब्रज-भाषा में काव्य रचना कर रहे थे। भारतेंदु युग में जहां ब्रज भाषा का काव्य प्रचुर-मात्रा में लिखा गया वहीं छायावाद आते-आते ब्रज-भाषा में गौण रूप से काव्य रचना लिखी जाती रही। इन कवियों का मत था कि ब्रज-भाषा में काव्य की लंबी परम्परा ने उसे काव्य के अनुकूल बना दिया है। छायावादी युग में ब्रज भाषा में काव्य रचना करने वाले कवियों में रामनाथ जोतिसी,रामचंद्र शुक्ल,राय कृष्णदास,जगदंबाप्रसाद मिश्र 'हितैषी',दुलारे लाल भार्गव,वियोगी हरि,बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',अनूप शर्मा,रामेश्वर 'करुण',किशोरीदास वाजपेयी,उमाशंकर वाजपेयी 'उमेश' प्रमुख हैं। रामनाथ जोतिसी(1874-.......) की रचनाओं में 'रामचंद्रोदय' मुख्य है। इसमें रामकथा को युग के अनुरूप प्रस्तुत किया गया है। इस काव्य पर केशव की 'रामचंद्रिका' का प्रभाव लक्षित होता है।विभिन्न छंदों का सफल प्रयोग हुआ है।  रामचंद्र शुक्ल(1884-1940) जो मूलत: आलोचक थे, ने '